|
प्रत्यादेश
मेरे अप्रकाशित लेखों को मेरी स्पष्ट स्वीकृति के बिना किसी के पास भेजना एकदम वर्जित है । मुझसे कहा गया है कि तुम ऐसा करना चाहती हो इसलिए मैं तुरंत तुम्हें यह सूचना दे रही हूं कि यह नहीं होना चाहिये और तुम्हारे पास ऐसी जितनी भी टंकित प्रतियां हों उन्हें तुरंत मुझे लौटा दो ।
१८ जून, १९६४
*
किसी चीज के '' स्कृपलस्ली '' करने का अर्थ है उसे पूरी सावधानी के साये, यथासंभव ईमानदारी से, अच्छी तरह करना ।
फिर कभी मेरे लिखे में अगर कोई ऐसे शब्द हो जिन्हें तुम न समझ सको, तो ज्यादा अच्छा यह होगा कि तुम अपनी कापी मेरे पास भेज दो और मुझे समझाने के लिए कहो । मैं हमेशा तुम्हें समझा दूंगी और इससे तुम, मैंने तुम्हें जो लिखा है उसके बारे में औरों से बात करने से बच जाओगे-क्योंकि यह अच्छा नहीं है ।
यह खेद का विषय है कि तुमने अपने प्रश्नों के मेरे उत्तर दिखा दिये । वे केवल तुम्हारे लिए थे, ओर किसी के लिए नहीं । इससे अनुभूति को अंशत: हानि हुई है, क्योंकि प्राण और मन अपनी कामनाएं पूरी करने के लिए स्थिति का लाभ उठाना चाहते थे ।
*
(साधकों और विधार्थियों के साध माताजी के टेनिस खेलने के बारे में)
मुझसे कहा गया था कि हमारे लड़के (जवान और वयस्क) किसी-न-
१०४ किसी कारण से मेरे साथ खेलना चाहते हैं (ठीक शब्द थे ''मुझे खेलने का अवसर देना चाहते हैं), लेकिन सचमुच खेलने के लिए और खेलना सीखने के लिए उन्हें आपस में खेलना चाहिये ।
*
तुम्हें ' भागवत चेतना ', ' प्रकाश ', और ' शक्ति ' से भरे वातावरण मे इस तरह खेलने और कसरत करने का असाधारण अवसर मिला है जिसमें तुम्हारी हर एक गति, हम कह सकते हैं, चेतना, प्रकाश और शक्ति से ओत-प्रीत रहती है जो अपने- आपमें गहन योग है लेकिन तुम्हारी अज्ञानमयी अचेतना, तुम्हारा अंधापन और संवेदनशीलता का अभाव ऐसा है कि तुम यह मानते हो कि तुम एक भली-सी द्वि महिला को-जिसके लिए तुम जरा कृतज्ञता और एक प्रकार के स्नेह का अनुभव करते हो-खिला रहे हो या अच्छी तरह खेलने में मदद कर रहे हो !
५ जून, १९४१
*
मैंने इसका उत्तर नहीं दिया क्योंकि उनके मन बहुत अधिक बेचैन और अशांत हैं, वे शक्ति का उपयोग करना नहीं जानते ओर मेरे किये-कराया काम को बिगाड़ देते हैं । लेकिन तुम्हें उनसे कुछ कहने की जरूरत नहीं- उन्हें केवल मेरे आशीर्वाद भेज दो ।
२३ मई १९५५
*
तुम्हें एक बात समझ लेनी चाहिये । किसी प्रश्न का उत्तर देने से पहले मैं समस्या के सभी, वर्तमान और भावी पहलुओं को देखती हूं, तो जब उत्तर दिया जाता हे तो वह अंतिम होता है । उस प्रश्न पर फिर से वापिस आने का कोई लाभ नहीं ।
१२ जून १९५५
*
१०५ अपने साठ वर्ष के लंबे अनुभव के बाद क्या आपको लगता है कि हमसे और मानवजाति से आपकी आशाएं काफी हद तक पूरी हुई है?
चूंकि मैं कोई आशा नहीं करती इसलिए में इस प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकती ।
*
'क' का कहना हे : ''यह माताजी पर निर्भर हो ! ''
नहीं, यह पूरा मेरे ऊपर निर्भर नहीं हे । अगर ऐसा होता, तो सब कुछ आसानी से चलता । लेकिन हमेशा व्यक्ति का चरित्र बीच में आता हे ।
२० अगस्त, १९६१
*
मैं मूर्खों को बुद्धिमत्तापूर्ण सलाह कैसे दे सकती हूं ?
*
ये रहे दो प्रश्न जिनका उत्तर देने की जरूरत नहीं
तुमने भगवान् के लिए ऐसा क्या किया है कि इतनी सारी मांगें करो? तुमने भगवान् का ऐसा क्या कर दिया है कि इतने सारे आघात झेल ।
तुमने प्रभु को क्या दिया है या उसके लिए क्या किया है, कि तुम यह मांग करते हो कि मैं तुम्हारे लिए कुछ करूं ? मैं केवल प्रभु का काम करती हूं ।
तुम्हारी मूल यह मानने में है कि मुझे धोखा दिया जाता है-यह असंभव हैं क्योंकि मेरे लिए उनके शब्दों की अपेक्षा उनके ''इरादे '' ज्यादा स्पष्ट होते हैं ।
लेकिन अगर मैं उन सबके साथ सख्ती करूं जो मुझे धोखा देने की
१०६ कोशिश करते हैं, तो इस सख्ती से बचने वाले बहुत हीं कम होंगे ।
*
क्या तुमने अपने नीयतों में कभी भूल नहीं की ? हां । तुमसे भूलें हुई हैं, है न? और बहुत बार ।
तो फिर, तुम किस अधिकार से यह सोचते हो कि जब मेरा निर्णय वही नहीं होता जो तुम्हारा निर्णय है, तो उसमें फ मेरी होती है?
*
मैं जानती हूं कि, तुम्हारे लिए, मेरे साथ होना न तो आवश्यकता है, न आनन्द, यह केवल कर्तव्य है, और यह भी कि तुम औरों के साथ ज्यादा खुश रहते हो । इसलिए मैं तुम्हें तभी बुलाती हूं जब यह जरूरी हो- अपनी खुशी के अनुसार नहीं, क्योंकि एक जमाना हो गया जब मैंने अपनी खुशी को जेब में डाल लिया था और उसे वही छोड़ दिया ।
*
मैं तुमसे इसीलिए नहीं मिली, क्योंकि मैं जानती थी कि यह बिलकुल बेकार है, क्योंकि जीवन और कर्म के बारे में हमारे दृष्टिकोण वस्तुत: बहुत भिन्न हैं ।
*
तुम मेरे विरुद्ध क्या कर सकते हो ? तुम अपनी शारीरिक चेतना में रहते हो और शरीर मर्त्य है । मैं अपनी आत्मा की चेतना में रहती हूं और मेरी आत्मा अमर है ।
*
लो, प्रभो, हम यह रहे, जिन लोगों को तुमने सबसे अधिक प्रेम दिखाया वे ही तुम्हें अपनी सब कठिनाइयों के लिए उत्तरदायी ठहराते हैं ।
१०७ |